नमस्कार दोस्तो , आज की इस पोस्ट में हम आपको भारतीय संविधान के मूल अधिकार ( Fundamental Rights of Indian Constitution ) के बारे में Full Detail में बताने जा रहे हैं ! ताकि किसी भी परीक्षा में इससे संबंधित कोई भी Question आपका गलत न हो ! 🙂
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मूल अधिकार (Fundamental Rights)
मूल अधिकार (मौलिक अधिकार) का अर्थ ऐसे अधिकारों से है जिनके द्वारा व्यक्ति अपना पूर्ण मानसिक, भौतिक और नैतिक विकास कर सके। मूल अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिये गये हैं। यह सापेक्षिक अधिकार हैं जो समय, स्थान, परिस्थिति विशेष में परिवर्तनशील होते हैं। मूल अधिकार देश की मूल विधि अर्थात् संविधान में उल्लेखित होते हैं। ये संविधान द्वारा रक्षित और प्रवृत्त होते हैं। मूल अधिकार सामान्यत: व्यक्ति के अधिकारों को बढ़ाते हैं तथा राज्य के अधिकारों को सीमित करते हैं। मूल अधिकार सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकृति के हो सकते हैं।
भारत में मूल अधिकारों की आवश्यकता क्यों? (Why the need of fundamental rights in India)
- भारत की अंधिकांश जनता निरक्षर होने के कारण अपने राजनीतिक हितों और अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं है। अत: यह संभावना बनी रहती है कि कहीं राज्य द्वारा उनके मूल अधिकारों का हनन न कर लिया जाए।
- संसदीय प्रणाली में जहाँ कार्यपालिकाका विधायिका में बहुमत होता है, हमेशा यह आशंका रहती है कि सरकार संसदीय बहुमत का प्रयोग करते हुए मूल अधिकारों को छीनने वाला कानून न बना दें।
- भारत में धार्मिक और नस्लीय वैविध्य का काफी ज्यादा है, जहाँ अल्पसंख्यक वर्ग अपनी कम जनसंख्या के कारण प्राय: कमज़ोर सिद्ध होते हैं; उन्हीं कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा और अधिकारों की सुरक्षा के लिये मूल अधिकारों की आवश्यकता महसूस हुई।
- भारत के संघात्मक पद्धति को स्वीकार किया गया है, ऐसे में यह संभावना स्वाभाविक है कि किसी प्रांत की सरकार नागरिकों के अधिकार छीनने का प्रयास करे। इसका एक ही समाधान था कि संविधान में ही व्यक्तियों के ‘मूल अधिकारों की गारंटी‘ दे दी जाए ताकि सरकारें संविधान से बंधी रहें।
- मूल अधिकारों की घोषणा की आवश्यकता इसलिये भी थी ताकि जनता को यह बोध हो कि संविधान की नज़र में कोई विशेष नहीं है बल्कि सबके हक और अधिकार समान है।
- यह अधिकार विशेषरूप से दलित, आदिवासी, शोषित तथा स्त्रियों सहित कई ऐसे वर्गों के लिये आवश्यक थे जो सदियों से शोषण और दमन का शिकार रहे हैं। ऐसे लोगों को मुख्य धारा में लाने के लिये मूल अधिकारों की व्यवस्था करना ज़रूरी था।
अनुच्छेद 12 : परिभाषा (Definition)
इस अनुच्छेद के तहत ‘राज्य‘ परिभाषा दी गई है, जिसमें राज्य के अन्तर्गत –
- भारत की सरकार और संसद
- प्रत्येक राज्य को सरकार और विधान मंडल
- सभी स्थानीय प्राधिकारी
- भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी शामिल हैं।
अनुच्छेद 13: मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियाँ
(Laws inconsistent with or in derogation of the fundamental rights)
अनुच्छेद 13(1) में कहा गया है कि इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के राज्य क्षेत्र में प्रवृत्त सभी विधियाँ उस मात्रा तक शूल्य होंगी जिस मात्रा तक वे इस भाग-3 के उपबन्धों से असंगत हैं अर्थात् मूल अधिकारों से असंगत हैं।
अनुच्छेद 13(2) के अनुसार राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खण्ड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।
अनुच्छेद 13(4) के अनुसार अनुच्छेद 13 की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किये गए इस संविधान के किसी संशोधन पर लागू नहीं होगी।
भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार (Fundamental rights conferred by the constitution of India)
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 12-35 तक मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है। मूल संविधान में यह अधिकार 7 वर्गों में थे लेकिन ’44वें संविधान संशोधन 1978‘ द्वारा ‘संपत्ति का अधिकार‘ (Right to Property) को हटा दिये जाने के बाद अब मूल अधिकार 6 वर्गों में ही रह गए हैं।
- समता का अधिकार – अनुच्छेद 14-18
- स्वतंत्रता का अधिकार – अनुच्छेद 19-22
- शोषण के विरूद्ध अधिकार – अनुच्छेद 23-24
- धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार – अनुच्छेद 25-28
- संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार – अनुच्छेद 29-30
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार – अनुच्छेद 32
मौलिक अधिकार से संबंधित GK Trick यहां पढें
समता का अधिकार (Right to equality)
अनुच्छेद-14 ‘विधि के समक्ष समता‘ एवं ‘विधियों के समान संरक्षण‘
(‘Equality before law’ and ‘equal protection of laws’)
अनुच्छेद 14 के अनुसार विधि के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं तथा विधि सभी व्यक्तियों को समान संरक्षण प्रदान करेगी।
विधि के समक्ष समता एक नकारात्मक अभिव्यक्ति है जिसका अर्थ है कि कानून के सामने विभिन्न व्यक्तियों में किसी प्रकार का विभेद नहीं किया जाएगा अर्थात् कुछ व्यक्तियों को अन्य व्यक्तियों की तुलना में किसी प्रकार के विशेषाधिकार नहीं दिये जाएंगे। कोई व्यक्ति आर्थिक संसाधनों या सामाजिक प्रतिष्ठा आदि की दृष्टि से चाहे कितना भी ऊँचा हो, वह देश की कानून व्यवस्था से ऊपर नहीं है।
विधियों का समान संरक्षण एक सकारात्मक अभिव्यक्ति है क्योंकि इसमें ‘संरक्षण’ शब्द के माध्यम से बताया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति की पहुँच कानूनों तक बराबर होनी चाहिये अर्थात् सभी व्यक्तियों पर लागू होने वाले ऐसे नियम नहीं बनाए जाने चाहिए जो पूर्णत: समान हों। इसका कारण है कि विभिन्न व्यक्तियों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ अलग-अलग होती हैं। इसलिये सभी पर कानून लागू करते समय उन अंतरालों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। वस्तुत: समान कानून उन्हीं व्यक्तियों के संदर्भ में बनाए जाने चाहिए, जिनकी परिस्थितियाँ समान हों। यदि दो व्यक्तियों की परिस्थितियों में काफी बड़ा अंतराल हो तो उसके लिये समान कानून बनाना वस्तुत: असमानता को पैदा करता है।
अनुच्छेद-15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध
(Prohibition of discrimination on ground of religion] race] caste] sex or place of birth)
अनुच्छेद 15(1) के अनुसार राज्य, किसी नागरिक के विरूद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान इनमें से किसी आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
अनुच्छेद 15(2) के अनुसार कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी के आधार पर
- दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश या
- राज्य निधि से पोषित (चाहे पूर्णत: या आंशिक) साधारण जनता के प्रयोग के लिये समर्पित कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग के सम्बन्ध में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा।
लेकिन यदि कोई विभेद इस अनुच्छेद में वर्णित आधारोंसे भिन्न किसी और आधार पर किया गया हो तो वह असंवैधानिक नहीं होगा जैसे इस सूची में जन्मस्थान का वर्णन है किन्तु यदि विभेद, निवास स्थान के आधार पर हो तो वह अवैध नहीं होगा।
अपवाद
- स्त्रियों और बच्चों के लिये विशेष उपबंध हो सकता है। (अनुच्छेद 15(3) )
- राज्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े नागरिक तथा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिये विशेष उपबंध कर सकती है। (अनुच्छेद 15(4) )
अनुच्छेद-16 लोक-नियोजन के विषय में अवसर की समता
(Equality of opportunity in matters of public employment)
अनुच्छेद 16(2) के अनुसार राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान निवास या इनमें से किसी के आधार पर कोई नागरिक अपात्र नहीं होगा न ही उनके साथ विभेद किया जाएगा।
विशिष्ट बात यह है कि इसमें अनुच्छेद 15 में विभेद का प्रतिषेध करने वाले पाँच आधारों के अलावादो अन्य आधार उद्भव तथा निवास-स्थान भी शामिल किये गए हैं।
- अनुच्छेद 16 का विस्तार सिर्फ उन पदों तक है जो राज्य के अधीन हैं। गैर-सरकारी संस्थाओं या निजी क्षेत्र की कम्पनियों द्वारा दिये जाने वाले पदों के संबंध में यह अधिकार लागू नहीं होता।
- यह संविदा संबंधी सेवाओं के मामले में लागू नहीं होता।
- नियोजन के अन्तर्गत प्रारंभिक नियुक्ति के साथ-साथ प्रोन्नति तथा सेवा से जुड़े अन्य पक्ष भी शामिल हैं।
- अनुच्छेद 16(4) में जिस पिछड़ेपन की बात की गई है वह मुख्यत: सामाजिक है।
- इन्द्रा साहनी के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि आरक्षण 50% से अधिक नहीं होगा।
- सर्वोच्च न्यायालय के अनुच्छेद 16(4) एवं 4 (ख) के तहत राज्य द्वारा आरक्षण प्रदान करने की शक्तियों पर कुछ सीमाएँ भी निर्धारित की गई हैं।
- आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% तक होगी (मात्रात्मक सीमा)
- क्रीमीलेयर का सिद्धान्त (गुणात्मक बहिष्कार)
- पिछड़ेपन और प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता
- समग्र प्रशासनिक दक्षता की आवश्यकता जो अनुच्छेद 335 के अनुपालन में हो।
- ‘पिछड़े वर्गों की पहचान’ का न्यायिक पुनर्विलोकन हो सकता है।
अनुच्छेद-17: अस्पृश्यता का उन्मूलन (Abolition of untouchability)
अस्पृश्यता का उन्मूलन का सामान्य अर्थ है। छूआछूत का निषेध।
इस अनुच्छेद के द्वारा संविधान ने अभिव्यक्त रूप से अस्पृश्यता के अन्त की घोषणा कर दी। इससे संबंधित विधि संसद द्वारा बनाई जा सकती है। इस संबंध में संसद ने ‘अस्पृश्यता’ (अपराध) अधिनियम 1955 बनाया। बाद में इसका नाम बदलकर ‘सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955‘ कर दिया गया। इसमें दण्ड भी विहित किया गया है।
इसके अलावा संसद ने 1989में ‘एट्रोसिटीज एक्ट‘ भी बनाया जो अपेक्षाकृत ज्यादा व्यापक और कठोर है। इस अधिनियम में ‘सिद्ध करने का दायित्व‘ अभियुक्त पर होगा न कि वादी पर।
अनुच्छेद-18: उपाधियों का अंत (Abolition of titles)
इस अनुच्छेद के तहत सभी तरह की उपाधियाँ समाप्त कर दी गई हैं, लेकिन शिक्षा और सेना इसके अपवाद हैं।
- भारत का कोई नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा। उपाधि एक ऐसी संज्ञा होती है जो किसी व्यक्ति के नाम के साथ जुड़ी होती है और उसे जन साधारण की तुलना में विशिष्ट सिद्ध करती है। संविधान उपधियों के दुरूपयोग को रोकने के लिये राज्य को उपाधियाँ प्रदान करने से प्रतिबंधित करता है।
- यह प्रतिबंध केवल राज्य के विरूद्ध है। अन्य सार्वजनिक संस्थाएँ, जैसे विश्वविद्यालय आदि अपने छात्रों आदि का सम्मान करने के लिए उन्हें उपाधियाँ या सम्मान दे सकते हैं।
- राज्य को सेना या विद्या संबंधी सम्मान देने से नहीं रोका गया है चाहे उनका प्रयोग नाम के साथ ही क्यों न किया जाए।
- राज्य को सामाजिक सेवा के लिये कोई सम्मान या पुरस्कार देने से निवारित नहीं किया गया है। इस सम्मान का उपाधि के रूप में अर्थात् अपने नाम के साथ जोड़कर उपयोग नहीं किया जा सकता।
- 1954 ई. में भारत सरकार ने चार प्रकार के सम्मान आरंभ किये जो निम्नलिखित हैं –
1. भारत रत्न 2. पद्म विभूषण 3. पद्मभूषण 4. पद्मश्री
- 2011 ई. के अंत में ‘भारत रत्न’ सम्मान देने की कसौटियाँ बदली गई हैं ताकि कला, साहित्य और विज्ञान के अलावा अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले व्यक्तियों को भी इस सम्मान के लिये अर्ह माना जा सके। अब भारत रत्न की कसौटी यह है कि यदि किसी व्यक्ति ने ‘मानवीय उद्यम के किसी क्षेत्र में सर्वोच्च स्तर का निष्पादन’ किया हो तो वह भारत रत्न के लिये योग्य होगा।
- 1977 ई. में जनता पार्टी की सरकार ने सम्मान प्रदान करने की इस प्रथा को समाप्त कर दिया, किन्तु 1980 ई. में इन्दिरा गांधी की सरकार ने इसे पुन: प्रारम्भ कर दिया।
अनुच्छेद 18(4) के अनुसार कोई भी व्यक्ति, चाहे वह भारतीय हो या विदेशी, यदि राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करता है तो वह बिना राष्ट्रपति की सहमति के किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन कोई भेंट, उपलब्धि या पद स्वीकार नहीं करेगा।
स्वतंत्रता का अधिकार (Right to freedom)
अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति एवं अन्य स्वतंत्रताएँ (Expression and other freedoms)
इस अनुच्छेद में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित 6 अधिकार हैं, यह अनुच्देद भारतीय संविधान के सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेदों में से एक है। इसमें नागरिकों को प्रदान की गई छ: स्वतंत्रताओं का उललेख है। संविधान के निर्माण के समाय इसमें सात स्वतंत्रताएँ शामिल थीं किन्तु 44वे संविधान संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा अनुच्छेद 19(1) (च) में उल्लिखितसंपत्ति के अर्जन, धारण और व्ययन के अधिकार को हटा दिया गया और इस प्रकार वर्तमान में छ: अधिकार हैं –
- अनुच्छेद 19(1) (क): भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
- अनुच्छेद 19(1) (ख): शांतिपूर्ण तथा सहकारी समिति बनाने का अधिकार।
- अनुच्छेद 19(1) (ग): संघ, संगठन या सहकारी समिति बनाने का अधिकार।
- अनुच्छेद 19(1) (घ): भारत के राज्यक्षेत्र में कहीं भी अबाध संचरण का अधिकार।
- अनुच्छेद 19(1) (ड.): भारत में कहीं भी निवासका अधिकार (अपवाद – जम्मू एवं कश्मीर)
- अनुच्छेद 19(1) (छ): कोई वृत्ति, व्यापार आदि करने का अधिकार।
GK Trick – अनुच्छेद -19 में दी गई 6 तरह की स्वतंत्रताऐं आसानी से याद करें
अनुच्छेद 20 : अपराधों के लिये दोष-सिद्धि के संबंध में संरक्षण (Protection in respect of conviction for offences)
- इस अनुच्छेद को इतना महत्तवपूर्ण माना गया है कि 44वें संविधान संशोधन द्वारा यह प्रावधान किया गया कि इसे आपात स्थिति में भी अनुच्छेद 359 के अधीन किसी भी आदेश द्वारा निलंबित नहीं किया जा सकता।
- कोई कृत्य अपराध है या नहीं। यह कार्य करने के समय जो विधि है उसी के अनुसार निर्धारित होगा, बाद में बनाई गई विधि के अनुसार नहीं। (अनुच्छेद 20(1) )
- किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिये एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा। (अनुच्छेद 20(2) )
- किसी अपराध के लिये अभियुक्त को स्वयं अपने विरूद्ध साक्षी होने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा।(अनुच्छेद 20(3) )
- इस अनुच्छेद के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने नार्को टेस्ट, पॉलीग्रॉफी टेस्ट, ब्रेन मैंपिंग तथा लाई डिटेक्टर टेस्ट आदि को अवैध घोषित किया है।
अनुच्छेद 21 : प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण (Protection of life and personal liberty)
किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं। इस अनुच्देद में ‘व्यक्ति’ शब्द का उल्लेख हुआ है अत: यह भारतीय नागरिकों के साथ-साथ विदेशियों पर भी लागू होता है।
- उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 में उल्लिखित ‘जीवन का अधिकार‘ का उदार र्विचन करते हुए इसके अन्तर्गत कई अन्य अधिकार सम्मिलित कर दिये जैं। जैसे –
- आजीविका का अधिकार
- अच्छे स्वास्थ्य का अधिकार
- पर्यावरण प्रदूषण के विरूद्ध संरक्षण का अधिकार
- एकांत का अधिकार
- शिक्षा पाने का अधिकार
- नींद का अधिकार या सोने का अधिकार
- भोजन का अधिकार आदि।
अनुच्छेद 21 क : शिक्षा का अधिकार (Right to education)
राज्य 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा इस प्रकार प्रदान करेगा, जिस प्रकार से राज्य विधि के अधीन निर्धारित करे।
अनुच्छेद 22 : कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण (Protection against arrest and detention in certain cases)
अनुच्छेद 22 अनुच्छेद 21 से गहरे तौर पर संबंधित है। अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को ‘प्राण और दैहिक स्वतंत्रता’ की गारंटी देता है तथा प्रावधान करता है कि ‘विधि द्वारा सथापित प्रक्रिया’ (Procedure established by law) के बिना किसी भी व्यक्ति को इन अधिकारों से वंचित नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 22 स्पष्ट करता है कि यदि किसी व्यक्ति को गिरफ्तार (Arrest) या निरूद्ध (Detain) किया जाता है, जो कि उसे ‘दैहिक स्वतंत्रता’ (Personal liberty) से वचित करना ही है, तो विधानमंडल द्वारा इस संबंध में बनाई गई प्रक्रिया-विधि (Procedure law) में कौन-कौन सी शर्तों का पूरा होना जरूरी है। ‘मेनका गांधी बनाम भारत संघ’ (1978) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि अनुच्छेद 22 अपने में संपूर्ण नहीं है, वह अनुच्छेद 21 का पूरक (Complimentary) है। अत: इन दोनो को एक साथ पढ़ा जाना जरूरी है।
शोषण के विरूद्ध अधिकार (Right against explitation)
संविधान के अनुच्छेद 23 और 24 में कुछ ऐसे प्रावधान किये गये है जो समाज के वंचित वर्गों को किसी भी तरह के शोषण से बचाने की व्यवस्था करते हैं। भारतीय समाज में स्त्री, दलित, जनजातियाँ, भूमिहीन, मजदूर, अत्यंत गरीब किसान तथा गरीब व अनाथ बच्चों जैसे कई दुर्बल वर्ग हैं, जिन्हें ताकतवर वर्गों के शोषण से बचाने के लिये विशेष संरक्षण की आवश्यकता थी। इन्हीं आवश्यकताओं को समझते हुए संविधान सभा ने संविधान में अनुच्छेद 23 और 24 की व्यवस्था की।
अनुच्छेद 23 : मानव के दुर्व्यापार और बलात्श्रम प्रतिषेध (Prohibition of traffic in human beings and forced labour)
अनुच्छेद 23 द्वारा मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रण का निषेध किया जाता है। और इस उपबंध का कोई भी उल्लंघन दण्डनीय अपराध होगा। हालॉंकि राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिये अनिवार्यसेवा अधिरोपित करने से निवारित नहीं किया गया है।
अनुच्छेद 24 : कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध (Prohibition of employement of children in factories etc.)
अनुच्छेद 24 के अनुसार चौदह वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिये नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाएगा।
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (Right to freedom of religion)
अनुच्छेद 25 : अंत: करण की और धर्म के अबाध रूप से मानने आचरण और प्रचार करेन की स्वतंत्रता (Freedom of consience and free profession, Practive and propagation of religion)
यह अनुच्छेद अंत: करण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध के रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को मान सकता है तथा उसका प्रचार कर सकता है।
अनुच्छेद 25 के अंतर्गत 2 खंड हैं – 25(1) तथा 25(2)। अनुच्छेद 25(1) में धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है जबकि 25(2) में उससे जुड़े युक्तियुक्त निर्बधन ( Reasonable restriction) बताए गए हैं। इसके अलावा, अनुच्छेद 25(2) के बाद दो स्पष्टीकरण भी दिये गए हैं जो सिख धर्म तथा हिंदू धर्म के बारे में हैं।
अनुच्छेद 25(1) का मूल पाठ इस प्रकार है –
”लोक व्यवस्था (Public Order), सदाचार (Morality) और स्वास्थय (Health) तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंत:करण की स्वंत्रता (Freedom of Conscience) का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण ( Practice) करने और प्रचार (Propagate) करने का समान हक होगा।”
अनुच्छेद 25(2) (क) में बताया गया है कि राज्य धार्मिक आचरण से संबंधित किसी ‘गैर-धार्मिक पक्ष’ जैसे आर्थिक, वित्तीय या राजनीतिक पक्षको विनियमित करने के लिये विधि बना सकता है।
अनुच्छेद 25(2)(ख) में व्यवस्था है कि ‘सामाजिक कल्याण’ और ‘समाज सुधार’ के लिए धार्मिक स्वतन्त्रता को सीमित किया जा सकता है। इसमें यह भी बताया गया है कि हिन्दू धर्म की धार्मिक संस्थाएँ सभी व्यक्तियों के लिये खुलें, ऐसी व्यवस्था लागू करने के लिये भी धार्मिक स्वतन्त्रता को सीमित किया जा सकता है।
अनुच्छेद-26: धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता (Freedom to manage religious affairs)
व्यक्ति को अपने धर्म के लिये संस्थाओं की संस्थाओं की स्थापनाकरने पोषण करने, विधि-सम्मत संपत्ति के अर्जन करने, स्वामित्व व प्रशासन करने का अधिकार है।
”लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके अनुभाग को –
- धार्मिक और पूर्त (Charitable) प्रयोजनों के लिये संस्थानों की स्थापना और पोषण का,
- अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का,
- जंगम (Movable) और स्थावर (Immovable) संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का, और
- ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रंशासन करने का, अधिकार होगा।”
इस अनुच्छेद को लेकर न्यायालय में कुछ रोचक प्रश्न उठते रहे हैं जिनमें प्रमुखता इस बात की रही है कि कोई समूह अनुच्छेद 26 के अंतर्गत ‘धार्मिक संप्रदाय’ माना जा सकता है।
अनुच्छेद-27: किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिये करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता (Freedom as to payment of taxes for promotion of any particular religon)
किसी भी व्यक्ति को ऐसे कर देने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा जिसकी आय किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि या पोषण में व्यय हो रही हो।
अनुच्छेद-28: कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता (Freedom as to attendance at religious instruction or religious worship in certain educational instiutions)
विशेष धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। साथ ही ऐसे राज्य निधि से पोषित शिक्षण संस्थान इस अनुच्छेद के अनुसार कुछ शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या उपासना में उपस्थित होने से स्वतंत्रता होगी तथा राज्य-निधि से पूर्णत: पोषित किसी शिक्षण संस्था में कोई अपने विद्यार्थियों को किसी धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेने या किसी धर्मोंपदेश को बलात सुनने हेतु बाध्य नहीं कर सकते।
संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार
अनुच्छेद-29 : अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण (Protection of interests of minorities)
भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार।
- ”भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा।”
- ”राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश ( Race), जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।”
अनुच्छेद-30 : शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों का अधिकार (Right of minorities to estabilish and administer educational institutions)
कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग अपनी पसंद का शैक्षणिक संस्था चला सकता है और सरकार उसे अनुदान देने में किसी भी तरह का भेद-भाव नहीं करेगी।
1 ” धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रूचि का शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।”
1(क) ” खण्ड (1) में निर्दिष्ट किसी अलपसंख्यक-वर्ग द्वारा स्थापित और प्रशासित शिक्षा संस्था की संपत्ति के अनिवार्य अर्जन के लिये उपबंध करने वाली विधि बनाते समय, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसी संपत्ति के अर्जन के लिये विधि द्वारा नियत या उसके अधीन अवधारित रकम इतनी हो कि उस खण्ड के अधीन प्रत्याभूत अधिकार निर्बन्धित (Restrict) या निराकृत (Abogate) न हो जाए ”
2 ”शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी शिक्षा संस्था के विरूद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक-वर्ग के प्रबंध में है।”
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
अनुच्छेद-32 : इस भाग के द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिये उपचार (Remedies for enforcement of rights conferred by this part)
अनुच्छेद 32 कई संविधानविदों की राय में संविधान का सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद है। संविधान-सभा की प्रारूप समिति ( Drafting Committee) के अध्यक्ष डाँ. अम्बेडकर, जिन्हें सम्मानवश ‘भारतीय संविधान का निर्माता’ कहा जाता है, ने इस अनुच्छेद का महत्व बताते हुए संविधान सभा में कहा था कि ”यदि मुझसे पूछा जाए कि संविधान में कौन-सा अनुच्छेद सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जिसके बिना संविधान निरर्थक हो जाएगा तो मैं इसके (अनुच्छेद 32 के) सिवाय किसी और अनुच्छेद का नाम नहीं लूंगा। यह संविधान की आत्मा है, उसका हृदय है।”
इस अनुच्छेद का इतना महत्व होने का कारण यह है कि इसी अनुच्छेद के माध्यम से संविधान के भाग 3 में दिए गए मूल अधिकारों का प्रवर्तन होता हैं। अधिकारों का महत्व तभी है जब उनका प्रयोग किया जा सके। ऐसे अधिकार जिनका प्रयोग करना सम्भव न हो, निरर्थक होते हैं। संविधान निर्माता जानते थे कि मूल अधिकारों के रूप में बहुतसे अधिकारों का संविधान में उल्लेख कर देना ही पर्याप्त नहीं है, यह भी जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे आसान तरीके उपलब्ध कराए जाऍं, जिनसे वह अपने अधिकार छिनने की स्थिति में तुरंत न्यायालय की मदद से उन्हें पुन: हासिल कर सके। अनुच्छेद 32 प्रत्येक व्यक्ति को यही गारंटी प्रदान करता है।
अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को तथा अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय को रिट जारी करने का अधिकार है। इन रिटों की संख्या 5 है।
- बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas corpus)
- परमादेश (Mandamus)
- प्रतिषेध (Prohibition)
- उत्प्रेषण (Certiorari)
- अधिकार पृच्छा (Quo warranto)
1. बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) : इसे लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है: ”को प्रस्तुत किया जाए” या ”शरीर प्राप्त करना” यह उस व्यक्ति के संबंध में न्यायालय द्वारा जारी आदेश है, जिसे दूसरे व्यक्ति के द्वारा हिरासत में रखा गया है। न्यायालय यह रिट जारी कर यह आदेश देती है कि हिरासत में लिये गये व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाए। अर्थात् अगर कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को हिरासत में रखताहैतो हिरासत में रखने वाले व्यक्ति के विरूद्ध न्यायालय यह रिट जारी कर सकती है। बंदी प्रत्याक्षीकरण की रिट को सार्वजनिक पाधिकरण हो या व्यक्तिगत दोनों के विरूद्ध जारी किया जा सकता है।
2. परमादेश (Mandamus) : परमादेश का शाब्दिकअर्थ होता है ”हम आदेश देते हैं”। यह न्यायालय द्वारा सार्वजनिक अधिकारियों को जारी किया जाता है। परमादेश रिट जारी कर न्यायालयद्वारा अधिकारियों के अनाधिकृत कार्यों को करने तथा अधिकृत कार्यों को न करने के संबंध में पूछा जाता है। इस रिट को सार्वजनिक इकाई, निगम, अधिनस्थ न्यायालय, प्राधिकरणों तथा सरकार के खिलाफ भी जारी किया जा सकता है। यह निजी व्यक्ति या इकाई के विरूद्ध जारी नहीं किया जा सकता है।
3. प्रतिषेध (Prohibition) : इसका शाब्दिक अर्थ ‘रोकना’ है। इस रिट का प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय अथवा किसी उच्च न्यायालय द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालयों को या अधिकरणों को अपने न्यायक्षेत्र से उच्च न्यायिक कार्यों को करने से रोकने के लिये किया जाता है। प्रतिषेध संबंधी रिट सिर्फ न्यायिकएवं अर्द्ध-न्यायिक प्राधिकरणों के विरूद्ध ही जारी की जा सकती है।
4. उत्प्रेषण (Certiorari) : इसका शाब्दिक अर्थ ”प्रमाणित होना” या ”सूचना देना” है। उत्प्रेषण की रिट भी न्यायपालिका से संबंधित है। यह किसी वरिष्ठ न्यायालय द्वारा किसी अधीनस्थ न्यायालय या न्यायिक निकाय को तब संबोधित की जाती है जब इस बात का संशय होताहै कि न्यायालयने अपनी अधिकारिता से बाहर जाकर निर्णय दिया है या निर्णय में प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का उल्लंघनकिया है। प्रतिषेध की ही तरह उत्प्रेषण भी विधिकनिकायों एवं निजी व्यक्तियों या इकाइयों के विरूद्ध जारी नहीं कियाजा सकता है।
5. अधिकार पृच्छा (Quo warranto) : अधिकार पृच्छा ‘को वारंटो’ का हिन्दी अनुवाद है। जिसका अर्थ है – ‘आपका प्राधिकार क्या है?’ न्यायालयइस रिट का प्रयोग एक कार्यवाही के रूप में करता है। यह रिट उस व्यक्ति के विरूद्ध जारी की जाती है, जिसके संबंध में यह शिकायतकीगई है कि उसने अवैध रूप से किसी सार्वजनिक पद को धारणकियाहुआ है। इस रिट के माध्यम से न्यायालय उससे पूछता है कि उसने किस प्राधिकार से उक्त पद धारण किया हुआ है। यदि वह पर्याप्त कारण नहीं बता पाता है तो न्यायालय अधिकारपृच्छा रिट जारी करके उसे उस पद से हटा सकता है।
प्रतिषेध व उत्प्रेषण रिट में अंतर :- प्रतिषेध और उत्प्रेषक रिट में मूल अंतर यह है कि यदि अधीनस्थ न्यायालय या न्यायिक निकाय अपनी अधिकारिता का उल्लंघन कर रहा है तो उसे ऐसा करने से रोकने के लिये प्रतिषेध रिट जारी की जाती है। किन्तु यदि अधीनस्थ न्यायालय अधिकारिता का उल्लंघन करके कोई निर्णय दे चुकाहै तो उस निर्णय और तत्संबंधी कार्यवाहियों को रद्द करेन के लिये उत्प्रेषण रिट जारी की जाती है।
दूसरे शब्दों में , प्रतिषेध रिट किसी न्यायिक कार्यवाही के शुरूआती चरण में दी जाती है, जबकि उत्प्रेषण रिट न्यायिक कार्यवाही हो जाने के बाद।
इन अधिकारों के अलावा, संविधान के भाग-3 में शामिल शेष अनुच्छेदों का संक्षिप्त परिचय
अनुच्छेद 33 : सेना, पुलिस, सुरक्षा बलों, आसूचना संगठनों आदि के मूल अधिकारों को सीमित करने की सांसद की शक्ति।
अनुच्छेद 35 : इस भाग में अपराध घोषित किये गए कार्यों के लिये दण्ड निर्धारित करने हेतु विधि बनाने की संसद की शक्ति।
मूल अधिकार में संशोधन (Amendment in fundamental rights)
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य : (1967 ई.) गोलकनाथ वाद के निर्णय से पूर्व दिये गए निर्णयों में यह निर्धारित किया गया था कि संविधान के किसी भी भाग में संशोधन किया जा सकता है, जिसमें उनुच्देद 368 एवं मूल अधिकार को भी शामिल किया गया था। किंतु इस बाद में (गोलकनाथ वाद) अनुच्छेद 368 में निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से मूल अधिकारों में संशोधन पर रोक लगा दी गई। अर्थात् संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहींकर सकती है।
- 24वें संविधान संशोधन 1971 ई. : इस संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 13 और 368 में संशोधन किया गया तथा यह निर्धारित किया गया कि अनुच्छेद 368 में दी गई प्रक्रिया द्वारा मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973 ई. : इस निर्णय में 24वें संविधान संशोधनको विधिमान्यता प्रदान की गई तथा गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के निर्णय केा निरस्त कर दिया गया।
- 42वाँ संविधान संशोधन 1976 ई. : इस संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 368 के खण्ड 4 और 5में जोड़े गये तथा यह व्यवस्था की गई कि इस प्रकार किये गए संशोधन को किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता है।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ 1980 ई. : इस वाद में यह निर्धारित किया गया कि संविधान के आधारभूत लक्षणों की रक्षा करने का अधिकार न्यायालय को है और न्यायालय इस आधार पर किसी भी संशोधन का पुरावलोकन कर सकता है। इसके द्वारा 42वें संविधान संशोधन में की गई व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया गया है।
क्या मौलिक अधिकार आत्यंतिक है? (Are fundamental rights absolute?)
आत्यंतिक (Absolute) होने का अर्थ है किन्हीं भी सीमाओं या मर्यादाओं से न बंधे होना। यदि मूल अधिकार बिना किसी नियंत्रण या निर्बन्धन के दिये जाएँ तो उन्हें आत्यंकित कहा जाता है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने इसे ध्यान में रखते हुए मूल अधिकारों के साथ वे ‘युक्तियुक्त निर्बन्धन’ भी स्पष्ट कर दिये हैं जो व्यक्तियों के मूल अधिकारों को सीमित करते हैं। यह ध्यान रखना जरूरी है कि कौन सा निर्बन्धन युक्तियुक्त है और कौन सा नहीं, यह तय करने की अंतिम शक्ति न्यायपालिका के पास है। क्योंकि संविधान के निर्वचन से तय होता है और संविधान का निर्वचन करना न्यायपालिका की व्यावर्तक (Exclusive) शक्ति है। इसी कारण न्यायपालिका को मूल अधिकारों का संरक्षक भी कहा गया है।
परीक्षापयोगी महत्वपूर्ण तथ्य
- मूल अधिकार संविधान के भाग-3 में वर्णित हैं।
- मूल अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिये गए हैं।
- भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों का वर्णन संविधान के अनुच्देद 12 से 35 तक किया गया है।
- वर्तमान में भारतीय संविधान में कुल 6 मूल अधिकार प्रदान किये गए हैं।
- मूल अधिकारों को लागू करने का दायित्व न्यायालय का है (सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय दोनों का)
- मूल अधिकारों को राष्ट्रीय आपात के समय राष्ट्रपति द्वारा निलंबित किया जा सकता है जबकि इन पर आवश्यक प्रतिबंध लगाने का अधिकार संसद को है।
- प्रेस की आजादी अनुच्छेद 19(1) (क) विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत निहित है।
- अनुच्छेद 21 कार्यपालिका और विधायिका दोनों के विरूद्ध संरक्षण प्रदान करता है।
- 44वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा संपत्ति के अधिकार को वैधानिक अधिकार बना दिया गया तथा अब यह संविधान के अनुच्देद 300A में है।
- राष्ट्रीय आपालकाल में अनुच्देद 20 और 21 को छोड़कर बाकी सभी मूल अधिकार निलंबित हो जाते हैं।
- 86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा अनुच्छेद 21क के अन्तर्गत शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा प्रदान किया गया है।
- अनुच्छेद 21क के अनुसार राज्य 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बालाकें के लिये नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध करेगा।
- पंथनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होता तथा राज्य सभी धर्मों को समान सम्मान देगा।
- सिर्फ भारतीय नागरिकों को प्राप्त मूल अधिकारों का वर्णन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 19, 29, 30 में है। शेष अधिकार भारतीय नागरिकों के साथ साथ भारत में निवास करने वाले व्यक्तियों के लिये भी हैं।
- परमादेश रिट के द्वारा किसी सक्षम न्यायालय द्वारा किसीव्यक्ति, निगम या निचली अदालत को कोई ऐसा कार्य करने के लिये आदेशदिया जाता है जो उसकी कर्तव्य सीमा में आता है और जिनको उन्हें पूरा करना चाहिए।
- नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 की धारा (12) के तहत न्यायालय उपधारित कर सकता है कि अपराध गठित करने वाला कोई कृत्य ‘अस्पृश्यता’ के आधार पर किया गया था, यदि ऐसा अपराध अनुसूचित जाति के सदस्य के संबंध में किया गया है।
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