नमस्कार दोस्तो , आज की हमारी इस पोस्ट में हम आपको भारतीय संबिधान के आपातकालीन उपबंध ( Emergency Provisions in Indian Constitution ) के संबंध में Full Detail में बताऐंगे , जो कि आपको सभी आने बाले Competitive Exams के लिये महत्वपूर्ण होगी !
भारतीय संबिधान के आपातकालीन उपबंध
सामान्य परिस्थितियों में भारतीय संविधान ससंघात्मक ढॉंचे का अनुसरण करता है परन्तु, हमारे संविधान निर्माताओं को इस बात का अहसास था कि यदि देश की सुरक्षा खतरे में हो या उसकी एकता और अखण्डता को खतरा हो, तो यह ढॉंचा परेशानी का कारण भी बन सकता है। ऐसी परिसस्थतियों में देश की रक्षा के लिये परिसंघ के सिद्धातों को त्याग दिया जाता है और जैसे ही देश की स्थितियॉं सामान्य होती हैं, संविधान पुन: अपने सामान्य रूप में कार्य करने लगता है।
भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान के भाग 18 के अनुक्ष्छेद (352-360) में तीन प्रकार के आपातों का उल्लेख किया है –
- युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में उत्पन्न आपात जिसे आम-बोलचाल में ‘राष्ट्रीय आपात’ कहा जाता है। हालॉंकि संविधान में इसके लिये ‘आपात की उद्घोषणा‘ शीर्षक का प्रयोग हुआ है।
- राज्यों में संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने की स्थिति से उत्पन्न परिस्थिति। प्रचलित भाषा में इसे राष्ट्रपति शासन के नाम से जाना जाता है। संविधान में इसके लिये कहीं भी आपात या आपातकाल शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है।
- ऐसी स्थिति जिसमें भारत का वित्तीय स्थायित्व या साख संकट में हो, तो उसे वित्तीय आपात कहते हैं। संविधान में भी इसे ‘वित्तीय आपात‘ कहा गया है।
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राष्ट्रीय आपात (National emergency)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के अनुसार राष्ट्रपति को आपात की उद्घोषणा करने की शक्ति प्राप्त है यदि उसे यह समाधान हो जाता है कि, ‘युद्ध’, ‘बाह्य आक्रमण’ या ‘सशस्त्र विद्रोह’ के कारण भारत या उसके किसी क्षेत्र की सुरक्षा संकट में है। जरूरी नहीं है कि संकट वास्तव में मौजूद हो यदि संकट सन्निकट है तो भी उद्घोषणा की जा सकती है। 44वे संविधान संशोधन द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि राष्ट्रपति ऐसी उद्घोषणा केवल तभी कर सकता है जब संघ का मंत्रीमंडल (Cabinet) इस संदर्भ में अपने विनिश्चय की सूचना लिखित रूप में प्रदान करें।
मूल संविधान में आपात की उद्घोषणा का आधार ‘युद्ध’, ‘बाह्य आक्रमण’ और ‘आंतरिक अशांति‘ था परंतु 44वें संविधान संशोधन के द्वारा ‘आंतरिक अशांति’ के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह‘ को आधार बनाया गया।
मूल संविधान में इस बात की कोई चर्चा नहीं थी कि आपात की एक ही उद्घोषणा की जा सकती है या एकाधिक उद्घोषणाएँ भी संभव हैं। ’38वें संविधान संशोधन 1975′ द्वारा अनुच्छेद 352 में एक नया खण्ड जोड़कर यह स्पष्ट किया गया कि राष्ट्रपति को इस अनुच्छेद के तहत विभिन्न आधारों पर एक ही समय में विभिन्न घोषणाऍं करने की शक्ति होगी, चाहे राष्ट्रपति ने पहले से कोई उद्घोषणा कर रखी हो और वह प्रवर्तन में हो।
नोट: भारतीय संविधान में केवल अनुच्छेद 352 में ही एक बार मंत्रिमंडल (Cabinet) शब्द का प्रयोग हुआ है, शेष सभी स्थानों पर मंत्रिपरिषद शब्द का उल्लेख है।
उद्घोषणा का राज्यक्षेत्रीय विस्तार (Territorial extension of the proclamation)
मूल संविधान में विशिष्ट तौर पर यह नहीं कहा गया था कि आपात की उद्घोषणा को भारत के किसी विशिष्ट भाग तक भी सीमित किया जा सकता है। इसका अर्थ यह निकाला जाता था कि समस्या चाहे देश के किसी विशिष्ट भाग तक ही सीमित क्यों न हो परंतु आपात की उद्घोषणा पूरे देश के लिये की जाएगी। 42वे संविधान संशोधन 1976 द्वारा राष्ट्रपति को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह आपात की उद्घोषणा को पूरे भारत या उसके किसी विशिष्ट क्षेत्र तक भी सीमित रख सकता है। यह संशोधन युक्तियुक्त और तर्कसंगत है जैसे यदि संकट लद्दाख पर हो तो यह आवश्यक नहीं कि कन्याकुमारी में भी आपात लागू किया जाये। संकट किस क्षेत्र पर है, इसका निर्णय राष्ट्रपति करेगा। यहाँ राष्ट्रपति के निर्णय का अर्थ मंत्रिमंडल के निर्णय से है।
आपात का अनुमोदन और अवधि (Approval and duration of emergency)
44वें संविधान संशोधन 1978 से पूर्व उद्घोषणा दो मास तक की अवधि तक विधिमान्य और प्रवर्तन में रहती थी। किन्तु, यदि दो मास की अवधि के समाप्त होने से पूर्व संसद के दोनों सदन सामान्य बहुमत के संकल्प द्वारा उसका अनुमोदन कर देते थे तो वह उद्घोषणा अनिश्चित काल तक ( जब तक मंत्रिपरिषद चाहे तब तक ) बनी रह सकती थी।
44वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा यह प्रावधान किया गया कि आरंभ में उद्घोषणा एक माह की अवधि तक प्रवृत्त रहेगी। यदि संसद के दोनों सदन एक माह के भीतर विशेष बहुमत द्वाारा संकल्प पारित कर देते हैं तो वह दूसरा संकल्प पारित किये जाने की तिथि से छ: माह तक बनी रहेगी। प्रत्येक छ: माह के पश्चात् उद्घोषणा की अवधि को आगे बढ़ाने के लिये पुन: विशेष बहुमत से अनुमोदन आवश्यक है। स्पष्टत: प्रत्येक अनुमोदन से उद्घोषणा को केवल छ: माह का जीवनकाल प्राप्त होता है और उसे नया जीवनकाल प्राप्त करने के लिये पुन: विशेष बहुमत के अनुमोदन की आवश्यकता होती है।
यदि लोकसभा का विघटन हो गया है तो ऐसी स्थिति में राज्यसभा उद्घोषणा का अनुमोदन करेगी और लोकसभा के पुनर्गठन के पश्चात् पहली बैठक के 30 दिनों के भीतर उद्घोषणा का लोकसभा द्वारा अनुमोदन आवश्यक है। ध्यातव्य है कि जब लोकसभी अस्तित्व में न हो और केवल राज्यभा द्वारा ही आपात उद्घोषणा का अनुमोदन किया जा रहा हो, तब भी उद्घोषणा की अवधि एक बार में छ: माह से अधिक नहीं हो सकती।
नोट: विशेष बहुमत का अर्थ है कि संकल्प सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से पारित हो और साथ ही साथ यह संख्या सदन की कुल संख्या का बहुमत भी हो।
उद्घोषणा की समाप्ति (Revocation of the proclamation)
अनुच्छेद 352 के आधार पर की गई आपात की उद्घोघणा तीन तरह से समाप्त हो सकती है –
- यदि निर्धारित समय सीमा के भीतर संसद के दोनों सदन विशेष बहुमत से उद्घोषणा का अनुमोदन या काल विस्तार नहीं करते तो वह स्वत: समाप्त हो जाती है।
- राष्ट्रपति जब चाहे उद्घोषणा को वापस ले सकता है। उद्घोषणा को वापस लेने के लिये संसद के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती।
- यदि लोकसभा अपनी कुल संख्या के कम से कम 1/10 सदस्यों के हस्ताक्षर द्वारा राष्ट्रपति को यह सूचित करती है कि उद्घोषणा को वापस ले लिया जाए तो ऐसी सूचना के 14 दिनों के भीतर लोकसभा की विशेष बैठक बुलाना अनिवार्य है, जिसमें संकल्प पर विचार होता है लेकिन संकल्प पारित किये जाने के लिये विशेष बहुमत का प्रावधान नहीं है। इसका अर्थ है, यदि इस बैठक में साधारण बहुमत से आपात की उद्घोषणा को वापस लेने का संकल्प पारित हो जात ाहै तो उद्घोषणा समाप्त हो जाएगी।
आपात उद्घोषणा के प्रभाव (Effects of emergency proclamation)
भारतीय राज्यव्यवस्था पर आपात की उद्घोषणा का बहुत व्यापक प्रभाव पड़ता है। संघ की कार्यपालिका को अपूर्व शक्तियॉं मिल जाती हैं। आष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा का विभिन्न अंगों पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है।
- कार्यपालिका पर प्रभाव: आपात की उद्घोषणा के समय केन्द्र की कार्यपालिका शक्ति का वितर किसी राज्य को यह निर्देश देने तक हो जाएगा कि राज्य अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयो किस प्रकार करेगा। इस प्रकार राज्य सरकार को केन्द्र सरकार के निर्देशों के तहत शासन चलाना होता है। यदि आपात किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित है तब भी अन्य राज्यों को निर्देश दिया जा सकेगा। सामान्य समय में राज्यों को केवल कुछ विषयों के बारे में ही निर्देश दिया जा सकता है परन्तु आपात की उद्घेाषणा के समय राज्यों को किसी भी विषय के बारे में निेर्दश दिया जा सकता है।
- विघायिका पर प्रभाव: राष्ट्रीय आपात के समय संसद, राज्य सूची के किसी भी विषय पर विधि बना सकती है और राष्ट्रपति राज्यसूची के किसी भी विषय पर अध्यारोहण करने की शक्ति मिल जाती है। इस प्राकर संसद राष्ट्रहित में तुरंत कार्य करने में समर्थ हो जाती है और उसे राज्य द्वारा कदम उठाए जाने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। इस प्रकार संविधान एक प्रकार से ऐकिक हो जाता है। (ध्यातव्य है कि राष्ट्रीय आपात की उद्घेषणा से राज्य विधानमंडल को लिनंबित नहीं किया जाता किंतु केंद्र और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों के समान्य विभाजन का निलंबन हो जाता है।)
- वित्तीय वितरण पर प्रभाव: राष्ट्रीय आपात की उद)घोषाणा के प्रवर्तन के समय राष्ट्रपति केन्द्र और राज्य के मध्य राजस्व वितरण से संबंधित उपबंधों को संशोधित कर सकता है। ये संशोधन उस वित्तीय वर्ष के अंत तक जारी रहते हैं जिसमें आपात की उद्घोश्ज्ञणा समाप्त होती है। राष्ट्रपति द्वारा किया गया कोई भी संशोधन यथाशीघ्र संसद के प्रत्ये सदन के समक्ष रखा जाता है।
- लोकसभा व विधानसभाओं के कार्यकाल पर प्रभाव: राष्ट्रीय आपात की उद)घोषणा के दौरान संसद विधि द्वारा लोकसभा व किसी भी विधानसभा कार्यकाल एक बार में एक वर्ष के लिये बढ़ा सकती है। कार्यकाल कितनी भी बार बढ़ाया जा सकता है परंतु एक बार में एक वर्ष तक के लिये ही बढ़ेगा। आपात की उद्घोषणा समाप्त होने के पश्चात् कार्रूकाल का विस्तार छ:माह से अधिक नहीं होगा।
- मूल अधिकारों पर प्रभाव: आपात के दौरान मूल अधिकारों पर पड़ने वाले प्रभावों को अनुच्छेद 358 और 359 में स्पष्ट किया गया है। जिनका विवरण निम्न है –
- अनुच्छेद 358 के अनुसार आपात के दौरान अनुच्छेद 19 का स्वत: निलंबन होता है। इसके लिये कोई पृथक घोषणा नहीं करनी पड़ती। अनुच्छेद 19 का निलंबन युद्ध और बाह्य आक्रमण के समय ही होता है, सशस्त्र विद्रोह के कारण घोषित आपात की स्थिति में नहीं। अनुच्छेद 358 केवल उन्हीं विधियों को सुरक्षा प्रदान करता है जिनका सीधा संबंध आपातकाल के साथ है और जिनमें इस आशय की स्पष्ट घोषणा की गई है। ऐसे कानूनों केतहत दिये गये आदेशों को भी यह सुरक्षा प्राप्त होती है। आपात की उद्घोषणा के समाप्त होते ही अनुच्छेद 19 पुन: जीवित हो जाता है।
- मूल संविधान में उल्लेख था कि आपात के दौरान अनुच्छेद 359 के अनुसार राष्ट्रपति आदेश निकालकर किसी भी मूल अधिकार का निलंबन कर सकता है। निलंबन कितने समय के लिये होगा इसकी घोषणा राष्ट्रिपति के आदेश में ही की जाएगी। ’44वे संविधान संशोधन 1978′ के द्वारा अनुच्छेद 359 पर यह शर्तें आरोपित कर दी गई कि-
- अनुच्छेद 359 के तहत जारी आदेश से अनुच्छेद 20 और 21 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को निलंबित नहीं किया जा सकेगा।
- संसद द्वारा पारित किसी कानून को अनुच्छेद 359 के तहत उन्मुक्ति तभी प्राप्त होगी जब उस कानून में स्पष्ट उल्लेख िकया गया हो कि उसका संबंध उस समय लागू आपात की उद्घोषणा से है। ऐसे कानूनों के तहत दिय गए कार्यकारी आदेशों को भी यह उन्मुक्ति हासिल होगी।
राष्ट्रीय आपात की घोषणा
अनुच्छेद 352 के तहत पहली उद्घोषणा के चीनी आक्रमण के कारण 26-10-1962 को की गई और यह 10-1-1968 तक जारी रही। अत: 1965 में पाकिस्तान के विरूद्ध हुए युद्ध में नया आपातकाल जारी करने की आवश्यकता नहीं हुई। दूसरी उद्घोषणा पाकिस्तान द्वारा अघोषित युद्ध के आधर पर 3-12-1971 को की गई। दूसरी उद्घोषणाजब प्रवर्तन में थी उसी समय ‘आभ्यांतरिक (आंतरिक) अशांति‘ के नाम पर 25-6-1975 को तीसरी उद्घोषणा की गई। दूसरी और तीसरी उद्घोषणा को 21-3-1977 को वापस ले लिया गया। इसके बाद अभी तक किसी भी राष्ट्रीय आपात की घोषणा नहीं हुई।
राज्य आपात या राष्ट्रपति शासन (State emergency or President’s rule)
किसी भी राज्य में राज्य आपात या राष्ट्रपति शासन दो आधारों पर लगाया जा सकता है-
- अनुच्छेद 356 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें राज्य का शासन संवैधानिक उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है। राष्ट्रपति को यह समाधान राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर भी हो सकता है और अन्यथा भी। संविधान में इस स्थिति को ‘संवैधानिक तंत्र का टूट जाना‘ के रूप में अभिव्यक्त किया है।
- अनुच्छेद 365 में उल्लेख है कि यदि कोई राज्य अनुच्छेद 256 और 257 के तहत केन्द्र द्वारा दिये गये निर्देशों का पालन नहीं कर रहा है या पालन करने में असमर्थ है, तो राष्ट्रपति के लिये यह निष्कर्ष निकालना विधिपूर्ण (Lawful) होगा कि राज्य की सरकार को संवैधानिक उपबंधों के अनुासर नहीं चलाया जा सकता है और अनुच्छेद 356 के तहत उद्घोषणा करना विधिसंगत होगा।
उद्घोषणा की अवधि और अनुमोदन (Duration and approval of the proclamation)
राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 356 के तहत की जाने वाली प्रत्येक उद्घोषणा संसदीय अनुमोदन की अपेक्षा रखती है। इन्हें निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-
- राष्ट्रपति कभी भी ऐसी उद्घोषणा कर सकता है और वह तुरंत प्रभाव से लागू हो जाती है। दो माह की अवधि तक वह संसदीय अनुमोदन के बिना प्रवृत्त रह सकती है।
- यदि संसद के दोनों सदन उद्घोषणा लागू होने के दो माह के भीतर उसका अनुमोदन न कर दें तो यह अवधि पूरी होने पर वह स्वत: समाप्त हो जाती है। अनुमोदन के लिये दोनों सदनों का साधारण बहुमत ही पर्याप्त होता है।
- यदि उद्घोषणा किये जाने के समय लोकसभा विघटित हो या इन दो महीनों की अवधि के भीतर उद्घोषणा का अनुमोदन किये बिना वह विघटित हो जाए: किंतु राज्यसभा ने उद्घोषणा का अनुमोदन कर दिया हो, तो लोकसभा के पुनर्गठन तक वह लागू रहेगी। नई लोकसभा जिस दिन पहली बार बैठेगी, उसके 30 दिनों की अवधि के भीतर यदि वह उद्घोषणा का अनुमोदन कर देती है तो ठीक: नहीं तो यह अवधि पूरी होते ही उद्घोषणा स्वत: समाप्त हो जाएगी।
- दोनों सदनों से अनुमोदन होने के बाद उद्घोषणा 6 माह की अवधि के लिये वैध होगी। अवधि की गणना मूल उद्घोषणा की तिथि से होगी। जितनी बार उद्घोषणा को बढ़ाया जाएगा, वह हर बार 6 माह के लिये ही बढ़ेगी। यदि लोकसभा इस दौरान विघटित हो गई तो वह केवल राज्यसभा के अनुमोदन से बढ़ जाएगी किंतु लोकसभा को अपने पुनर्गठन के बाद पहली बैठक के 30 दिनों के भीतर उसका अनुमोदन करना होगा, नहीं तो वह स्वत: रद्द हो जायेगी।
- एक वर्ष तक उद्घोषणा को उपरोक्त विधि से बढ़ाया जा सकता है, किंतु यदि उसे एक वर्ष की अवधि के बाद भी बढ़ाना हो तो उसके लिये दो अन्य शर्तें पूरी होनी जरूरी है-
- संपूर्ण देश या उसके किसी भाग में अनुच्छेद 352 के तहत आपात की उद्घोषणा लागू हे, तथा
- निर्वाचन आयोग ने प्रमाणित किया है कि वर्तमान में संबद्ध राज्य के साधारण चुनाव कराने में कठिनाइयों के कारण उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखना आवश्यक है।
गौरतलब है कि यह प्रावधान मूल संविधान में नहीं था, इसे ’44वे संशोधन, 1978′ द्वारा जनता पार्टी की सरकार ने अनुच्छेद 356(5) जोड़कर शामिल किया था।
- उपरोक्त शर्तें पूरी होने पर भी किसी राज्य में अनुच्छेद 356 के तहत की गई उद्घोषणा की अधिकतम अवधि 3 वर्ष ही हो सकती है।
- उद्घोषणा को वापस लेना बिल्कुल आसान है। राष्ट्रपति जब चाहे, किसी पश्चात्वर्ती उद्घोषणा द्वारा मूल उद्घोषणा को वापस ले सकता है। ऐसा करने के लिये संसद के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं है।
उद्घोषणा का न्यायिक पुनर्विलोकन (Judicial review of the proclamation)
वर्ष 1978 में जनता पार्टी की सरकार ने 44वें संशोधन द्वारा उस उपबंध को संविधान से बाहर कर दिया जो राष्ट्रपति के समाधान की न्यायिक पुनर्विलोकन से परे करता था तथा ‘एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ 1994‘ में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सीमित आधारोंपर उद्घोषणा का न्यायिक पुनर्विलोकन हो सकेगा। इस संबंध में न्यायालय केवल दो बातों की जॉंच करेगा-
- क्या राष्ट्रपति का समाधान अनुचित है या असद्भावपूर्ण हे या पूर्णत: बाह्य और असंगत कारणों पर आधारित है?
- क्या अनुच्छेद 356 के तहत निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये राष्ट्रपति के पास पर्याप्त सामग्री मौजूद थी? राष्ट्रपति के समक्ष ऐसी सामग्री होनी चाहिये जिस पर विचार करके कोई तार्किक व्यक्ति अनुच्छेद 356 के प्रयोग करने के निष्कर्ष पर पहॅुंचता है।
उद्घोषणा का प्रभाव
यदि किसी राज्य में अनुच्छेद 356 के तहत उद्घोषणा की जाती है तो राष्ट्रपति-
- राज्य सरकार के सभी या कोई कृत्य अपने हाथ में ले सकता है।
- राज्यपाल या किसी अन्य निकाय या प्राधिकारी में निहित या प्रयुक्त सभी या कोई शक्तियां अपने हाथ में ले सकता है।
- वह घोषणा कर सकताहै कि राज्य विधानमंडल की शक्तियाँ संसद के द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन प्रयोग की जाएगी।
- वह ऐसे आनुषंगिक या पारिणामिक उपबंध कर सकता है जो उद्घोषणा को प्रभावी करने के लिये आवश्यक व वांछनीय प्रतीत हों। इसके अंतर्गत संविधान के किसी उपबंध का निलंबन भी शामिल है।
व्यवहारिक स्थिति यह है कि अनुच्छेद 356 के तहत उद्घोषणा करने पर, राष्ट्रपति राज्य की मंत्रिपरिषद को बर्खास्त कर देता है। राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति के नाम पर राज्य सचिव की सहायता से अथवा राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किसी सलाहकार की सहायता से राज्य का शासन चलाता है। यही कारण है कि व्यवहार में इसे ‘राष्ट्रपति शासन’ कहा जाता है।
अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति विधानसभा को विघटित या निलंबित कर सकता है। इस स्थिति में संसद, राज्य के विधेयक और बजट पारित करती है। जब कोई विधानसभा इस प्रकार निलंबित या विघटित कर दी जाती है तो-
- संसद राज्य के लिये कानून बनाने की शक्ति राष्ट्रपति या किसी अन्य प्राधिकारी को दे सकती है। सामान्य: यह शक्ति राष्ट्रपति को दी जाती है।
- यदि लोकसभा का सत्र न चल रहा हो तो राष्ट्रपति राज्य की संचित निधि से संबंधित लंबित विधेयकों को अनुमति दे सकता है।
- यदि संसद का सत्र न चल रहा हो तो राष्ट्रपति संबंधित राज्य के लिये अध्यादेश (ordinance) भी जारी कर सकता है।
- अनुच्छेद 356 को उद्घोषणा के तहत राष्ट्रपति न तो उच्च न्यायालय में निहित या प्रयुक्त शक्तियॉं अपने हाथ में ले सकता है और न ही उन उपबंधों को पूर्णत: या अंशत: निलंबित कर सकता है जिनका संबंध उच्च न्यायालयों से है।
- अनुच्छेद 356 की उद्घोषणा के दौरान संसद या राष्ट्रपति द्वारा बनायी गई विविधियॉं उद्घोषणा की समाप्ति के बाद स्वत: समाप्त नहीं होती अपितु वे तब तक प्रवर्तन में रहती हैं जब तक कि सक्षम विधानमंडल या प्राधिकारी द्वारा निरसित, संशोधित नहीं कर दी जाती है।
राष्ट्रीय आपात और राज्य आपात में तुलना | ||
आधार | राष्ट्रीय आपात | राज्य आपात |
उद्घोषणा का आधार | जब युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण भारत या उसका कोई भाग खतरे में हो या खतरा सन्निकट हो। | राज्य की सरकार संवैधानिक उपबंधों के अनुसार न चल रही हो या राज्य अनुच्छेद 256 और 257 के तहत राज्य, संघ के निर्देशों का पालन न कर रहा हो। |
अवधि | आरंभ में 1 माह तत्पश्चात् संसद के विशेष बहुमत से पारित संकल्प के द्वारा प्रत्येक बार में 6 माह की अवधि तक बढ़ती है। अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं है। | आरंभ में दो माह तत्पश्चात् संसद के सामान्य बहुमत से पारित संकल्प द्वारा एक बार में 6 माह की अवधि तक बढ़ती है। अधिकतम सीमा 3 वर्ष है। |
मूल अधिकारों पर प्रभाव | अनुच्छेद 19 स्वत: निलंबित हो जाता है तथा अनुच्छेद 20 और 21 को छोड़कर अन्य अधिकार राष्ट्रपति के आदेश से निलंबित हो सकते है। | मूल अधिकारों की प्रवर्तनीयता पर किसी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। |
राज्य की कार्यपालिका पर प्रभाव | संघ की कार्यपालिका, राज्य की कार्यपालिका को किसी भी विषय पर निर्देश दे सकती है परन्तु राज्य की कार्यपालिका कार्य करती रहती है। | राज्य की मंत्रिपरिषद बर्खास्त कर दी जाती है और कार्यपालिका की शक्तियॉं राष्ट्रपति में निहित कर दी जाती है। |
राज्य की विधायिका पर प्रभाव | राज्य की विधायिका बनी रहती है परंतु संसद राज्य सूची के किसी भी विषय पर कानून बना सकती है। इस शक्ति का संसद प्रत्यायोजन नहीं कर सकती है। | संसद राज्य के बारे में विधान बनाने की शक्ति का राष्ट्रपति या किसी अन्य प्राधिकारी को प्रत्यायोजन कर सकती है। विधायिका को निलंबित या विघटित कर दिया जाता है। |
अन्य | सभी राज्यों के साथ केन्द्र के संबंध परिवर्तित होते है।
लोकसभा उद्घोषणा वापस लेने का संकल्प पारित कर सकती है (सामान्य बहुमत से)। |
केवल विशिष्ट राज्य के साथ केन्द्र के संबंध परिवर्तित होते हैं।
वापस लेने के लिये संसद या उसके किसी सदन से संबंधित कोई प्रावधान नहीं है। |
वित्तीय आपात (Financial emergency)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 360(1) के अनुसार, यदि राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाता है कि भारत या उसके किसी राज्यक्षेत्र के किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व या साख संकट में है, तो वह देश में वित्तीय आपात की उद्घोषणा कर सकता है। ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति के समाधान का अर्थ यहॉं मंत्रिपरिषद के समाधान से है।
आरंभ में उद्घोषणा दो माह तक प्रवृत्त रहती है, यदि दो माह की अवधि के भीतर संसद, साधारण बजुमत से उद्घोषणा का अनुमोदन कर देती है तो उद्घोषणा अनिश्चित काल तक बनी रह सकती है। क्योंकि अनुच्छेद 360 में उद्घोषणा के लिये अधिकतम अवधि निर्धारित नहीं की गई है। यदि लोकसभा अस्तित्व में नहीं है तो अनुमोदन राज्यसभा द्वारा किया जाएगा और उद्घोषणा का नवगठित लोकसभा के द्वारा अपनी पहली बैठक के 30 दिनों के भीतर अनुमोदन आवश्यक है, अन्यथा 30 दिन की अवधि पूरी होते ही उद्घोषणा स्वत: समाप्त हो जाएगी।
वित्तीय आपात की उद्घोषणा को किसी भी पश्चातवर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस लिया जा सकता है। इसके लिये संसद के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती है। अभी तक भारत में एक बार भी इसका प्रयोग नहीं हुआ है।
वित्तीय आपात के प्रभाव (Effect of financial emergency)
अनुच्छेद 360(3) और (4) में बताया गया है कि वित्तीय आपात के क्या प्रभाव होंगे? ये प्रभाव निम्नलिखित हैं-
- केंद्र सरकार राज्यों को वित्तीय औचित्य संबंधी सिद्धांतों का पालन करने का निर्देश दे सकती है। इसके अलावा ऐसे निर्देश भी दिये जा सकते हैं, जिन्हें मूल निर्देशों की पूर्ति हेतु राष्ट्रपति आवश्यक समझे।
- इन निर्देशों के अंतर्गत किसी राज्य सरकार से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह राज्य के अधीन सेवा करने वाले सभी या किन्हीं वर्गों के व्यक्तियों के वेतन और भत्तों में कटौती करें।
- यह निर्देश भी दिया जा सकता है कि राज्य विधानमंडल द्वारा पारित धन विधोयक और अनुच्छेद 207 के अंतर्गत आने वाले अन्य विधेयक, राष्ट्रपति के विचारण हेतु आरक्षित किये जाऍं।
- राष्ट्रपति यह निर्देश भी दे सकता है कि केंद्र सरकार के सभी या किसी वर्ग के कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में कटौती की जाए। यह कटौती उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन और भत्तों में भी की जा सकती है।
- अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार की सहमति के बिना उस राज्य में प्रभावी नहीं हो सकती।
- जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल, भारत के राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 या जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 92 के तहत राज्यपाल शासन की घोषणा कर सकता है।
परीक्षोपयोगी महत्वपूर्ण तथ्य
- संविधान के अनुच्छेद 360 (वित्तीय आपात) के उपबंध जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होते हैं।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 का शीर्षक ‘आपात की उद्घोषणा’ है।
- भारतीय संविधान में अनुच्छेद 356 में आपात या आपातकाल शब्द का कहीं भी प्रयोग नहीं हुआ है।
- 44वे संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 352 में आंतरिक अशांति के स्थान पर सशस्त्र विद्रोह शब्द रखा गया है।
- अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा और अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन का सीमित आधारों पर न्यायिक पुनर्विलोकन संभव है।
- संविधान के भाग 18 में अनुच्छेद 352-360 तक आपातकालीन उपबंधों का उल्लेख है।
- आपात उपबंध जर्मनी के वाइमर संविधान से लिये गए हैं।
- चीनी आक्रमण के समय उनुच्छेद 352 के तहत की गई आपात की पहली उद्घोषण (1962) के समय प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू व राष्ट्रपति डॉ एस राधाकृष्णन थे।
- दूसरी आपात उद्घोषणा (1971) पाकिस्तान द्वारा आक्रमण के समय पर की गई। इस समय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी व राष्ट्रपति वी वी गिरि थे।
- तृतीय आपातकाल उद्घोषणा 1975 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने बिना मंत्रिमंडल के परामर्श के आंतरिक अशांति के आधार पर राष्ट्रपति फख़रूद्दीन अली अहमद से करवाया था। इस समय दूरी उद्घोषणा प्रवर्तन में थी।
- अनुच्छेद 352 के तहत आपात की उद्घेाषणा करने के लिये राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल की लिखित सूचना आवश्यक है परंतु वापस लेने के लिये लिखित सूचना की आवश्यकता नहीं है।
- संविधान के अनुच्छेर 19 का निलंबन केवल युद्ध और बाह्य आक्रमण के समय होता है।
- आपात के दौरान संसद लोकसभा या किसी भी राज्य विधानसभा का कार्यकाल एक बार में एक वर्ष के लिये बढ़ा सकती है।
- राज्यों में राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा अनुच्छेद 356(1) के तहत होती है।
- अनुच्छेद 356 के तहत उद्घोषणा का अनुमोदन संसद साधारण बहुमत से करती है जबकि अनुच्छेद 352 का अनुमोदन विशेष बहुमत से होता है।
- किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन अधिकत 3 वर्ष तक लागू रह सकता है।
- एक वर्ष से अधिक राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिये संसद अनुमोदन तभी दे सकती है जब अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपात लागू हो और निर्वाचन आयोग उस राज्य के लिये निर्वाचन कराने में असमर्थ हो।
- अनुव्छेद 356 का संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
- अनुव्छेद 352 के तहत की गई उद्घोषणा, 1 माह तक और अनुच्छेद 356 और 360 के तहत की गई उद्घोषणा 2 माह तक बिना संसदीय अनुमोदन के प्रवृत्त रहती है। अब तक सर्वाधिक दुरूपयोग अनुच्छेद 356 का हुआ है।
- अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन एक बार में सर्वाधिक समय पंजाब में रहा है। राष्ट्रपति शासन सर्वप्रथम पेप्सू (वर्तमान पंजाब) में लागू किया गया।
- जम्मू-काश्मीर में ‘राष्ट्रपति शासन’ की जगह ‘राज्यपाल शासन’ लगता है।
- भारत में कभी भी वित्तीय आपात नहीं लगा है।
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